तुम्हारा साथ ना छूटे ©धीरज दवे

 नमन, माँ शारदे

नमन, लेखनी



बाद बरसों के लिखा इक खत तुम्हारा मिल गया है

जिसमें सबकुछ है दुआ है बद्दुआ है अलविदा है

रुक गया हूं एक पंक्ति पे हृदय में भरभराकर

पूछती हो तुम जहां कि क्या करोगे दूर जाकर

तो सुनो ये बात मन की, बात ना फूटे 

पुण्य संचित कर रहा हूं मैं कि अब अगले जनम में

हाथ ना छूटे तुम्हारा साथ ना छूटे 


डूबता हूं मैं मगर अब तार देता हूं जगत को

गर सही को ओढ़ भी लूं साथ रखता हूं गलत को

भेद कुछ करता नहीं हूं वेदना में प्रेरणा में

अब किसी को कुछ भी मैं कहता नहीं हूं व्यंजना में

धर्म पोषित कर रहा हूं मैं कि अब अगले जनम में 

हाथ ना छूटे तुम्हारा साथ ना छूटे


मैं कि पीड़ा को बना कर गीत गाता जा रहा हूं

झेल कर पत्थर जगत से भी बहुत इतरा रहा हूं

शत्रुओं से बैर कैसा प्रीत कैसी मित्रता में

दुख ही सुख है सुख ही दुख है गुनगुनाता जा रहा हूं

दैव योजित कर रहा हूं मैं कि अब अगले जनम में 

हाथ ना छूटे तुम्हारा साथ ना छूटे


मैं गगन से टूट कर भी आ गिरा हूं फिर गगन में

बन गया हूं ईश अपना आ गया अपनी शरण में

फूंक कर के कामनाएं मार कर हर इक पिपासा

मैं चमकते नेत्र ले कर चल रहा हूं अधमरा सा

रक्त सिंचित कर रहा हूं मैं कि अब अगले जनम में 

हाथ ना छूटे तुम्हारा साथ ना छूटे 


मैं बहा के आ गया वो पुस्तकें वो कि जिनमें मर्म था उपदेश थे

सिसकियां मेरी ऋचाएं बन गई अब वो उत्सव हैं जो पहले क्लेश थे

देखता हूं एक हिमनद सा खड़ा, है सकल वो ही जो मुझमें है गढ़ा 

जलके- गलके भी बचे जो बस वही

देह निर्मित कर रहा हूं मैं कि अब अगले जनम में

हाथ ना छूटे तुम्हारा साथ ना छूटे 

©धीरज दवे


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