कविता-बादल का टुकड़ा ©संजीव शुक्ला
खुला आसमा एक बादल का टुकड़ा ......
हवा के थपेड़ों से लड़ता हुआ सा ......
परेशान फिरता भटकता फलक पर...
कभी लड़खड़ा कर संभलता हुआ सा...
हसीं हम सफर खूबसूरत जहां था..
घटाओं का अपना बड़ा कारवां था...
भटक कर फ़लक में कहीं खो गया था...
न जाने वो कैसे ज़ुदा हो गया था ......
बहुत दूर अपनी जमी छोड़ आया .......
डगर पूछता आगे बढ़ता हुआ सा ......
वो अपनी घटा आसमाँ खोजता सा......
वो खोया हुआ आशियाँ खोजता सा....
नए मोड़ पर कुछ अटकता हुआ सा.....
सहमता डरा सा झिझकता हुआ सा....
बड़ा कोई बादल मिला रास्ते में .....
उसे देख ठिठका सहमता हुआ सा ........
कहीं रौशनी दूर देखी शफ़क पे ...
उसी ओर बढ़ने लगा वो फ़लक पे.....
ज़ुदा कारवां से भटकता मुसाफिर ...
उम्मीदों के दामन पकड़ता हुआ सा..
निगाहों में शोला कोई जल रहा था...
कोई ख्वाब टूटा हुआ पल रहा था...
लिए प्यास रंजूर पाँवों में छाले....
संभाले मुकम्मल नमी चल रहा था .......
बहुत प्यासी अपनी ज़मीं खोजता सा .....
बदस्तूर मुश्किल सफर थक चुका सा.....
खुला आसमाँ एक बादल का टुकड़ा...
हवा के थपेड़ों से लडता हुआ सा.....
©संजीव शुक्ला रिक्त
अत्यंत भावपूर्ण एवं हृदय स्पर्शी रचना भाई
जवाब देंहटाएंअत्यंत संवेदनशील एवं भावपूर्ण गद्य कविता 💐🙏🏼
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण कविता सर।
जवाब देंहटाएंअद्भुत अदुत्ये कविता सरजी👌👌
जवाब देंहटाएं