कविता - मैं दहलीजों पे बैठूंगा ©अंशुमान मिश्र


मैं दहलीज़ों पे बैठा हूं, कभी तो लौट आओगे,

कभी फिर मुस्कुराओगे, गले फिर से लगाओगे,

बहारें साथ में लेकर, वो शामें फिर  से आएंँगी,

वो  बूंँदे आसमांँ से गिर, हमें फिर से  मिलाएंँगी,

तुम्हें देखे  हुआ अर्सा, चलो अब लौट आओ ना,

जो देखे थे  सभी  सपने, उन्हें पूरा भी है करना!

ये दुनिया के सभी पागल, मुझे पागल समझते हैं,

कि दिल पर चोट करते हैं, मेरा धीरज परखते  हैं!

अभी भी तुलसियांँ आंँगन में, तुमको याद करती हैं,

अभी भी आम की बौरें, सुनो  फरियाद करती हैं,

नज़र भी थक चुकी है अब, ये सांँसे घट चुकी हैं अब,

भरोसा कम नहीं है पर, उमर भी कट चुकी है अब,

मगर मैं फिर सभी सपनों को आंँखों में समेटूंँगा,

तुम्हारी  राह  देखूंँगा! मैं दहलीजों पे  बैठूंँगा!

मैं दहलीज़ों पे  बैठा हूंँ, मैं दहलीजों पे  बैठूंँगा!



                       - ©अंशुमान

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