गीत- प्रतिकार ©लवी द्विवेदी

 कितनी उलझी, तब असमय आक्रोशित हो, 

शांत निलय अपना डमरू स्वर लेती है। 

कर एकत्रित कवि द्वारा अनदेखे क्षण, 

कविता भी प्रतिकार ग्रहण कर लेती है। 


जब चाहा नव विकसित रचना रच डाली, 

जब समसि शब्द संचार हृदय में होता है। 

शिरा शिरा विचलित होती विचलित तन मन, 

तब पृष्ठों पर विस्तार विषय में होता है। 

मौन शांत हो आ तो जाती नव जग में, 

किंतु वचन प्रतिभा जब क्षण भर लेती है

कविता भी प्रतिकार ग्रहण कर लेती है। 


सुख में मुदित हृदय वाली प्रमुदित कविता, 

असहनीय दुख में दुविधा की छवि रोचक। 

अमिट प्रमादी शब्द शब्द से निकल विकल, 

कभी कठिन क्षण विस्मय नेत्र निलय अपलक। 

भावों के भंडार किंतु बैरी मन से, 

जब जब तृष्णा प्रेम प्रणय हर लेती है, 

कविता भी प्रतिकार ग्रहण कर लेती है। 


विचलित मन वाले पंथ हीन प्रेमी कवि से, 

वो असमय विलग मूक पथ को अविरल पाती। 

कविता वो करुण पिपासा है जो निश्छल है, 

किंतु दंभ के चलते स्वयं छली जाती। 

जब मिलता नहीं कवितवर से मन शब्दों का, 

शंका के चुन चुन रख कंकर लेती है। 

कविता भी प्रतिकार ग्रहण कर लेती है। 

© लवी द्विवेदी

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