गीत- हसरतें ©प्रशान्त

 वो सामने खड़ी थी , गेसू सुलझ रहे थे l

वो भी उलझ रही थी, हम भी उलझ रहे थे ll


इक नाज़नीन मुझसे नज़रें लड़ा रही थी l

शबनम निगाह उसकी, गरमी बढ़ा रही थी ll

वो भी झुलस रही थी, हम भी झुलस रहे थे l

वो भी उलझ रही थी, हम भी उलझ रहे थे ll


दो-तीन रोज़ पहले , आई थी वो‌ शहर में l

पहले-पहल दिखा था , इक चाँद दोपहर में ll

मौसम बदल रहा था , बादल गरज़ रहे थे l

वो भी उलझ रही थी, हम भी उलझ रहे थे ll


छत पर मुहब्बतों की बरसात हो रही थी l

लब तो सिले हुए थे , पर बात हो रही थी ll

वो भी समझ रही थी , हम भी समझ रहे थे l

वो भी उलझ रही थी, हम भी उलझ रहे थे ll


दो अजनबी दिलों में ज़ज़्बात पल रहे थे l

दुनिया जहान वाले सब हाथ मल रहे थे ll

हर दिन मुहब्बतों के अरमान सज रहे थे l

वो भी उलझ रही थी, हम भी उलझ रहे थे ll


इक शाम को अचानक, फिर हो गयी क़यामत l

वापस वो जा रही थी ,  हाए रे मेरी क़िस्मत ll

वो भी तरस रही थी , हम भी तरस रहे थे  ll

वो भी उलझ रही थी, हम भी उलझ रहे थे ll

                              ©प्रशान्त

टिप्पणियाँ

  1. अहा , क्या खूब 👌🏼👌🏼❤️❤️❤️

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. बेहद खूबसूरत बेहद रूमानी गज़ल 👌👌👌👏👏👏

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