प्रेम ©रानी श्री

 टहलते टहलते अनायास ही तुम्हारा सवाल आया जिसका जवाब मैं कभी दे नहीं सकी और इससे पहले कि जवाब दे पाती तुम ख़ुद ही एक सवाल बनकर रह गये। इस जवाब को पढ़ने के लिये तो तुम नहीं हो, फ़िर भी लिख रहीं हूँ, भूले बिसरे मिल जाए तो पढ़ लेना। 


क्या तुम्हें पता है कि वास्तव में प्रेम क्या है? यही था ना तुम्हारा सवाल?


तो सुनों,


प्रेम वो थोड़ी है जो एक पल में हो गया और दूसरे ही पल गायब। प्रेम तो वो है जो तुम्हारे और हमारे ना होने के बाद भी रहे। प्रेम आपसी समझ से बनता है। प्रेम को कोई भी लिख नहीं सकता उसे तो केवल अंतर्मन से महसूस कर सकते हैं। कभी भी दो प्रेमियों जैसा प्रेम नहीं होना चाहिए क्योंकि उसमें यदि शक के बीज जम गये तो वो प्रेम को बर्बाद कर देगा। प्रेम यदि होना चाहिए तो एक मां और एक बच्चे की तरह होना चाहिए, निश्छल, निस्वार्थ भाव वाला जहाँ कोई भी शक जगह नहीं ले सकता। 


प्रेम एक ऐसा बंधन है जिसमें कोई बंधन नहीं होता लेकिन ये सारे बंधनों से परे है। कुछ लोग अपने प्रेम के सही होने के दावे करते हैं, पर मैं नहीं मानती , जिसमें दावे और दिखावे होते वो प्रेम तो कतई नहीं। प्रेम थोड़ा त्याग है, थोड़ा समर्पण, थोड़ा आदर और थोड़ी समझ है। कुछ बचकानी हरकतें और रूठना मनाना भी है। सही को सही और गलत को गलत बताना प्रेम है। 


कभी सोचा है कि आसमान से जो बादल बरसते हैं, वो क्या है? दरअसल वो प्रेम है, आकाश का धरती के लिये। आकाश और धरती दोनों हमेशा साथ चलते हैं और आकाश की सबसे खास बात यह होती है कि जब उसकी धरती गर्मी में बहुत ज्यादा तपती है तब वह आकाश जलती धरती के कारण अपने ठंडे आंसुओं से जार जार रोता है और वो जिसे मैं और तुम बादल या वर्षा को पानी कहते हैं ना, वो उस आकाश का प्रेम है,और उन्हीं आंसुओं से धरती खुद को सिंचित करके अपनी गर्माहट और प्यास बुझाती है और हरी-भरी होती है। ये होता है प्रेम, अपने साथी को कष्ट में नहीं देख पाना। सदियों से दोनों साथ साथ चल रहे, प्रेमपाश में बंधकर। उसी आकाश और धरती के प्रेम के बीच पनपते हैं कई और भी प्रेम, उन जैसे तो नहीं पर करीब-करीब वैसे ही।


प्रेम वसंत की तरह होता है जो अपनी प्रकृति को पतझड़ की तरह निढ़ाल नहीं देख सकता है इसलिये आकर वो उसे फ़िर से हरा भरा कर देता है। प्रेम उस स्तर तक वर्जित नहीं, जिस स्तर पर मैं तुम जैसी दिखने लगूं और तुम मेरी तरह। जब तक हमारी विषमता समानता में नहीं बदल जाती वो प्रेम अपनी आख़िरी सीमा तक नहीं पहुँच पाता।


"प्रेम ही वास्तविकता है और वास्तविकता ही प्रेम है।"


मेरे लिये तो तुम हीं प्रेम हो। तुमसे जुड़ी हर बात, हर याद , हर पल प्रेम है। 


जिस दिन आख़िर मुझे तुमसे मिला दे 

उस दिन इसी थल को मैं प्रेम लिखूंगी। 


लगी हुई आग को जो एकदम बुझा दे,

तुम्हें मान उस जल को मैं प्रेम लिखूंगी। 


अगर तुम मेरे आने वाले कल में हो तो,

कल आने वाले कल को मैं प्रेम लिखूंगी 


जिस पल से लेके जिस पल तुम मेरे हो

इस पल में उस पल को मैं प्रेम लिखूंगी।


मन में सुकून  भरी  हुई शांति से ले कर,

हर बार होते हलचल को मैं प्रेम लिखूंगी। 


उस कीचड़ में जो हर दिन ही खिलता है,

उस पंक के  कमल को  मैं प्रेम लिखूंगी।


अपने हर एक शब्दों में तुमको लिख कर

कई शेरों वाले गज़ल को मैं प्रेम लिखूंगी।


ख़ैर,तुम इस दुनिया में तो नहीं हो मगर जो मेरे साथ तुम्हारा होना है ना, संक्षिप्त में वही है प्रेम। और जिस प्रकार अपनी आख़िरी सांस तक तुम जो मुझसे करते रहे उसी प्रकार अपनी आख़िरी सांस तक मैं जो तुमसे करती रहूंगी वही है प्रेम।


अभी मैंने जितना कुछ लिखा मेरी नज़र से शायद वही प्रेम हो और वास्तव में शायद ना भी हो लेकिन एक बात जानते हो,


"वास्तव में बस तुम और मैं ही हैं प्रेम।"


तुम्हारी 

रानी श्री

टिप्पणियाँ

  1. बेहद खूबसूरत और भावपूर्ण😍

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  2. बेहद खूबसूरत लेखन, सुंदर भाषा शैली एवं भावपूर्ण रचना 👌👌👌👏👏👏💐💐💐

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  3. प्रेम को बड़ी खूबसूरती से परिभाषित किया है 👌👌👌👏👏👏

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